यार मेरे, इन सियाह शामों
की ढेर लगा दें तो कितनी ऊँची होगी?
इतनी, कि सारे बिखरे रिश्तों से ऊँची?
यार मेरे, इन सियाह शामों
के दाग लग चुके हैं,
तुम्हारे लम्बे से लम्बे हाथों की
उलझी हुई लकीरों पे,
और इस चादर पे.
एक ऐसी शाम आए,
जब ये सियाही दस्तक देके
तुम्हारे अधखुले दरवाज़े को
पार कर, चौखट से मुकर जाए,
तो इन दागों को देखकर खुश हो ना तुम.
और जिस फुर्ती से ये भी
उतर उतर के एक कोने में
इकट्ठा होती जाएँगी,
उस तेज़ी से घबराना नहीं -
यही सोचके खुश होना
कि शाम की फ़ितरत ही
डामाडोल है.
6 comments:
bahot khoob - ke shaam ki fitrat hi damadol hai!
Thank you Arfi,
That's my favourite line too ;)
(As you can see, I'm experimenting with my linguistic identity!)
Interesting nazm! Enjoyed the siyaah shaam and siyaahi visuals...!
No more experiments?
Arfi,
Not in writing, no.
Hmmm .. we've lost you to musicians, I think. But god forbid, be it syntacticians!
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