आज मेरे हाथ से हल्दी की डिब्बी छूट गई,
देखो, शायद मेरे हाथ पीले हो गए.
कहाँ कल तक आप मुझसे पूछा करती थीं
कि खाने में क्या बनाऊँ.
अखाड़े में काई जम गई है, अम्मा,
अब वैसी धूल ही कहाँ, जो हमारे घर में
सिंकते बैंगन से उड़ती चिंगारियों की तरह
उड़ा करती थी.
यह रसोई पता नहीं किसकी है.
आँगन से कुछ बच्चे न जाने क्यों मुझे उसी नज़र से देखते हैं
जिसमें मैंने शायद आपको बहुत साल क़ैद रखा.
इस बड़े से घर में मैं भूखी हूँ;
कहाँ घर के हर कोने में बहस की वजह छुपा करती थी.
2 comments:
This one hits really hard...something about it...the way it changes unexpectedly throughout, yet at the same time there is some continuity of emotion. Have read it again after some time. Well written!
Thank you, Siyaah!
Especially thanks for coming back to re-read!
J.
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